भारत के इतिहास में आपातकाल का समय एक ऐसा दौर था, जिसने देश की राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया। इस काल में कई ऐसे चेहरे सामने आए, जिन्होंने अपने कार्यों से लोगों के मन में गहरी छाप छोड़ी। इन्हीं में से एक थीं रुख्साना सुलताना (Emergency’s Nasbandi Queen), जिन्हें संजय गांधी की करीबी मित्र और आपातकाल के दौरान नसबंदी अभियान की प्रमुख चेहरा माना जाता था।
रुख्साना सुलताना का परिचय
रुख्साना सुलताना एक प्रभावशाली और विवादास्पद व्यक्तित्व थीं। वे एक अमीर परिवार से थीं और उनकी मां जरीना एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री थीं। रुख्साना का असली नाम मिनू था, लेकिन बाद में उन्होंने इस्लाम धर्म अपनाया और अपना नाम बदलकर रुख्साना सुलताना रख लिया।
संजय गांधी से मुलाकात और राजनीतिक उदय
रुख्साना की मुलाकात संजय गांधी से कैसे हुई, इस बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह मुलाकात एक साबुन की दुकान पर हुई थी, जबकि अन्य स्रोतों के अनुसार, यह मुलाकात किसी राजनीतिक कार्यक्रम में हुई थी। जो भी हो, इस मुलाकात ने रुख्साना के जीवन की दिशा बदल दी।
संजय गांधी के साथ उनकी दोस्ती ने उन्हें राजनीतिक गलियारों में प्रवेश दिलाया। वे जल्द ही आपातकाल के दौरान संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम की प्रमुख प्रचारक बन गईं।
नसबंदी अभियान में भूमिका
आपातकाल के दौरान, संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक व्यापक नसबंदी अभियान शुरू किया। रुख्साना सुलताना को दिल्ली के पुराने इलाकों में इस अभियान का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई। उन्हें “बेगम साहिबा” के नाम से जाना जाने लगा और उन्हें पुलिस सुरक्षा भी प्रदान की गई।
रिपोर्ट्स के अनुसार, रुख्साना के प्रयासों से लगभग 13,000 पुरुषों की नसबंदी की गई। उन्होंने मुस्लिम समुदाय में भी इस अभियान को बढ़ावा देने का प्रयास किया, जहां परिवार नियोजन के प्रति अक्सर प्रतिरोध देखा जाता था।
विवाद और आलोचना
हालांकि, रुख्साना के तरीके अक्सर विवादास्पद रहे। कई लोगों ने आरोप लगाया कि नसबंदी अभियान के दौरान जबरदस्ती और धमकी का इस्तेमाल किया गया। कुछ मामलों में, नाबालिगों और बुजुर्गों की भी नसबंदी की गई, जो कि कानूनी और नैतिक दोनों दृष्टि से गलत था।
तुर्कमान गेट प्रकरण ने रुख्साना की छवि को और भी नुकसान पहुंचाया। इस घटना में, नसबंदी के बदले में झुग्गी-झोपड़ियों को न हटाने का वादा किया गया था। लेकिन बाद में जब झुग्गियां हटाई गईं, तो इसने लोगों के गुस्से को भड़का दिया।
आपातकाल के बाद का समय
1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ और जनता पार्टी सत्ता में आई, तो रुख्साना सुलताना का प्रभाव कम होने लगा। हालांकि, जब 1980 में इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं, तो रुख्साना ने एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में वापसी की कोशिश की।
लेकिन इस बार उनकी स्थिति पहले जैसी मजबूत नहीं थी। संजय गांधी की मृत्यु के बाद, उनका राजनीतिक प्रभाव तेजी से कम हो गया। धीरे-धीरे वे राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गईं।
रुख्साना सुलताना का विरासत
रुख्साना सुलताना का जीवन विरोधाभासों से भरा रहा। एक ओर, वे एक शक्तिशाली और प्रभावशाली महिला थीं, जिन्होंने पुरुष-प्रधान राजनीति में अपनी जगह बनाई। दूसरी ओर, उनके कार्य अक्सर विवादों में रहे और उन्हें व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा।
उनके जीवन से हमें कई सबक मिलते हैं:
- सत्ता का दुरुपयोग: रुख्साना का मामला दिखाता है कि कैसे असीमित सत्ता का दुरुपयोग हो सकता है।
- नीतिगत निर्णयों का महत्व: जनसंख्या नियंत्रण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर नीतियां बनाते समय सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
- लोकतंत्र में जवाबदेही: आपातकाल के बाद रुख्साना के प्रभाव में कमी यह दर्शाती है कि लोकतंत्र में जनता अंततः नेताओं को जवाबदेह ठहराती है।
- महिला सशक्तीकरण का दोहरा पहलू: रुख्साना एक शक्तिशाली महिला थीं, लेकिन उनके कार्य अक्सर अन्य महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करते थे।
रुख्साना सुलताना का जीवन भारतीय राजनीति के एक विवादास्पद अध्याय का प्रतीक है। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि सत्ता के साथ जिम्मेदारी भी आती है, और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना कितना महत्वपूर्ण है।
आज, जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो रुख्साना सुलताना का जीवन हमें कई महत्वपूर्ण सवाल पूछने पर मजबूर करता है। क्या जनहित के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन उचित है? सरकारी नीतियों को लागू करने में बल प्रयोग का क्या स्थान है? और सबसे महत्वपूर्ण, हम कैसे सुनिश्चित करें कि इतिहास खुद को न दोहराए?
ये सवाल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने तब थे। रुख्साना सुलताना की कहानी हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र में सतर्कता की कीमत स्वतंत्रता है, और हमें हमेशा अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सचेत रहना चाहिए।