
Published on: 01/09/2025
मर्दों को क्यों लगता है कि वे किसी भी महिला को कहीं भी छू सकते हैं?
क्या वजह है कि कुछ लोग लड़कियों को ‘माल’ समझते हैं—जैसे वे कोई वस्तु हों? निगाहें ‘कमर’, ‘नाभि’ और बदन के दूसरे अंगों पर टिकी रहती हैं। गाने चलते हैं, स्टेज पर तालियाँ बजती हैं और लड़कियों के शरीर को ‘तबला’ बना दिया जाता है। कभी कोई अंग ‘टमाटर’ कहा जाता है, तो कोई ‘ककड़ी’ या ‘कटहल’। इन्हीं हरकतों से वाहवाही मिलती है, यही शोहरत का ‘राज़’ बन जाता है—और ‘माल’ के साथ खेलने का मज़ा भी।
सोशल मीडिया पर लाखों फ़ॉलोअर वाले भोजपुरी के कई पुरुष गायक-कलाकारों की यही कहानी रही है। फिल्मों और म्यूज़िक वीडियोज़ में जो कुछ होता है, वही आम ज़िंदगी में भी दोहराया जाता है। अक्सर लोग बच निकलते हैं, पर कई बार पकड़ में आ भी जाते हैं—और इस बार गायक-कलाकार पवन सिंह फ़ंस गए।
सवाल तो बनता है
क्या लड़कों/मर्दों की नज़र लड़कियों को देखने में सचमुच अलग होती है? क्यों कई लोग लड़कियों को ऐसी नज़र से देखते हैं जहाँ वो ‘माल’ दिखती हैं? वे बेख़ौफ़ कुछ भी, कहीं भी कैसे कर लेते हैं? कौन-सी ‘छूट’ है जो उन्हें ऐसा अधिकार समझ आ जाता है—क्या इसे वे अपना हक़ मान बैठे हैं?
वायरल वीडियो से शुरू हुई बहस
कुछ सेकंड का एक कार्यक्रम-वीडियो सोशल मीडिया पर चर्चा में है। इसमें जो दिखा, उसने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया। ऐसा लगा मानो पवन सिंह सोचते हों कि किसी को भी इस तरह छू लेना उनका हक़ है—और कुछ होगा नहीं। वे इसे अपने ‘दायरे’ की हरकत मानते रहे—ऐसा दायरा जहाँ स्त्री को क़ाबू में रखना और मनचाहे तरीक़े से ‘इस्तेमाल’ करना शामिल है। यह पहली बार नहीं, उन पर पहले भी ऐसे इल्ज़ाम लग चुके हैं।
लेकिन मुद्दा सिर्फ़ एक पवन सिंह या भोजपुरी इंडस्ट्री भर का नहीं—यह एक बीमार समाज का लक्षण है।
स्त्री की सामाजिक हालत और मर्दाना नज़रिया
ऐसी घटनाएँ हवा में नहीं घटतीं। हमारा सामाजिक ढाँचा स्त्री को अक्सर बराबरी का इंसान नहीं मानता, उसे पुरुष की ‘ख़िदमत’ की वस्तु समझ लेता है। जो आज अंजलि या किसी और के साथ हो रहा है, वह इसी सोच से निकलता है—यानी स्त्री को देखने का एक मर्दाना नज़रिया।
बॉलीवुड हो या भोजपुरी सिनेमा—अक्सर स्त्री को ‘देखने योग्य’ यौन वस्तु तक सीमित कर दिया जाता है: शरीर पर पुरुष का ‘हक़’, और वह तय करेगा कि उन अंगों के साथ क्या होगा। इसलिए बेख़ौफ़, जब-तब, जहाँ-तहाँ ‘खेल’ चल निकलता है। यह नज़रिया यह भी मान बैठता है कि स्त्री अपने शरीर के बारे में फ़ैसला लेने लायक नहीं। स्टेज हो, गाना हो या घर-गली—लड़की को यौन वस्तु की तरह पेश किया जाता है, और पुरुष ‘दबंग मर्दानगी’ का चलता-फिरता प्रतीक बन जाता है—मज़बूत बाँहें, चौड़ा सीना, और मन आया तो जो चाहे करना।
पवन सिंह ने अंजलि राघव से माफ़ी माँगी
इसके असर पर भी बात ज़रूरी है। अक्सर पूछा जाता है—ऐसी हरकत पर लड़कियाँ उसी वक़्त जवाब क्यों नहीं देतीं? कहना आसान है, करना नहीं। उस पल कई बार समझ ही नहीं आता कि कैसे रिएक्ट करें—ख़ासकर जब सामने वाला जाना-पहचाना हो। बचपन से ही कई लड़कियों को सिखा दिया जाता है—“इतना तो चलता है, नज़रंदाज़ करो।”
इस घटना पर अंजलि राघव की लंबी प्रतिक्रिया आई। उन्होंने कहा, “क्या पब्लिक में कोई मुझे ऐसे टच करके जाएगा, उससे मुझे ख़ुशी होगी? मुझे बहुत ज़्यादा बुरा लगा, ग़ुस्सा आया और रोना भी आया. मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ?” साथ काम करने वाले पर भरोसा होता है, और वही व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर कुछ ऐसा कर दे जो बिल्कुल नहीं करना चाहिए—उस पल कुछ समझ पाना आसान नहीं। अंजलि ने यह भी बताया कि बोलने में हिचक क्यों थी—क्योंकि भोजपुरी फ़िल्मी दुनिया में ऐसे पुरुष कलाकारों की पकड़ मज़बूत है। पवन सिंह के नाम के आगे तो ‘पावरस्टार’ लगा है—यह ‘पावर’ बहुत कुछ कह देता है। और आख़िर में खामियाज़ा किसे भुगतना पड़ता है? अक्सर लड़की को। अंजलि के मुताबिक़, उन्होंने तय किया है कि अब वे भोजपुरी फ़िल्मों में काम नहीं करेंगी। कई बार चुप्पी की वजह यही होती है—काम छूट जाना या अलग-थलग पड़ जाना।
‘रज़ामंदी’ यानी कंसेंट—मतलब साफ़-साफ़
अफ़सोस, ज़्यादा लोगों को कंसेंट (रज़ामंदी) का मतलब अब तक ठीक से समझ नहीं आया। उन्हें लगता है कि लड़की बात कर रही है, हँस रही है—तो उसे ‘छू’ लेना चल जाएगा। लड़की की रज़ामंदी की इज़्ज़त करना नहीं आता—और बिना रज़ामंदी जो कुछ भी किया जाता है, वह जुर्म है। अंजलि भी मानती हैं—किसी भी लड़की को उसकी सहमति के बिना ‘टच’ करना ग़लत है।
पर यहाँ बात सिर्फ़ ‘टच’ की नहीं। ‘टच’ शब्द मासूम-सा लगता है—जैसे अनजाने में किसी की पीठ पर हाथ रख दिया। जबकि इस घटना में ‘छूना’ मासूम नहीं था; उँगलियों की हरकत बहुत कुछ कह रही थी। इसलिए इसे ‘छूना’ भर नहीं, उत्पीड़न/यौन उत्पीड़न कहना ज़्यादा सही है—यही है।
दिलचस्प है कि घटना के बाद हरियाणा के कुछ नौजवानों की प्रतिक्रियाएँ भी आईं—लेकिन उनकी भाषा में मर्दाना ग़ुस्सा ज़्यादा दिखा। यह किसी प्रदेश की ‘इज़्ज़त’ का सवाल नहीं—समस्या उस नज़रिए की है जिसे हम मर्दाना नज़रिया कह रहे हैं।
बड़ा सवाल यही है: इस दबंग मर्दाना नज़रिए को छोड़कर लड़के संवेदनशील कैसे बनें? यही बहस आज सबसे ज़रूरी है।
डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध सार्वजनिक स्रोतों से एकत्रित की गई है। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस जानकारी को उपलब्ध स्रोतों से सत्यापित करें।